2017年4月17日星期一 在: 诗 没意见 स्याही मुद्दतों में उठायी क़लम हाथों में, देख कागज़-ए-ख़ाली हम खो गए, लफ़्ज़ों के आईने में देख ख़ुदा को, ख़ुद ही की मौसीक़ी में मशगूल हो गए | मनमें तराशा बिखरे अल्फाज़ो को, कांटे भी फूल हो गए, एूंद स्याही गिरी दवात से, छिपे सारे राज़ गुफ़्तगू हो गए | 用电子邮件发送BlogThis!分享到Twitter分享至Facebook
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