मँखों से जब अपने ख्वाबों को पूरा करने मैं अपने घर से दूर चलने लगा, वो सड़क बड़ी छोटी लगने लगी, ऐसा लगा काश वो सड़क खत्म ही ना हो. अपने साथ यादों का कारवाँ ले के चला था मैं. यूँ लगा उन सब यादों कि जुदाई सही ना जायेगी और घर के सामने कि वो सड़क लंबी हो जायेगी.
मेरे घर के हर कोने से मेरी अनेकों यादें जुड़ी थीं. चलते वक्त मन को बहलाने के लिए माँ कि बात याद आ गयी. उनने चिढ़ाते हुए कहा था की जहां मै जा रहा हूँ वहा इससे भी बड़ा घर होगा. अगले ही पल मन ने कहा - घर दीवारों से नहीं उसमें रह रहे लोगो से बनता है.
मनमें भारीपन लिए पहुँच गया अपने ख्वाबों के शहर, उस सुंदर आलीशान घर के आगे मेरा अपना घर छोटा दीख पड़ता था, फिर सोचा माँ जान कर बड़ी खुश होंगी!
那未知ान नगरी में हर किसी के साथ कोई ना कोई था, आपस में हँसते-बोलते रहते और मै अकेला उन्हें तांकता रहता.

भीड़ में मेरी नजर दो दोस्तों पर पड़ी. उनका वो मासूम-सा तकरार और अगले ही लम्हें में ढेर सारा दुलार, मानो एक दुसरे के साथ है तो दुनिया से कोई सरोकार ही नहीं. एक तरफ़ उन्हें देख कर खुशी हुई और फिर मेरे सबसे ख़ास दोस्त का ख्याल कर के दुःख.
कभी लगता था यहाँ से भाग निकलूँ, किंतु मेरे ख्वाब मुझे पीछे खींच लेते थे. उस तन्हाई के आलम में ख़ुद ही को समझा लिया करता था. दिन गुजरते गए. एक दिन माँ का ख़त आया, उनके जन्मदिन पर एक दिन के लिए घर बुलाया था. फिर क्या था, एक पंछी कि तरह उड़ चला अपने आशियने में. मेरे शहर कि गलियों कि वो महक, घर में घुसते ही माँ कि प्यारी-सी मुस्कान, पिताजी का दुलार और बहन का शरारत भरा झगड़ा - 'भैया, तुम खाली हाथ तो नहीं आ गए ना'! ऐसा लगा ख़ुद को फिर से पा लिया. जन्मदिन मनाने के बाद अपने ख़ास दोस्त से मिलने गया. खूब बातेंं कर अपना मन हलका किया.
हर्षित मन के साथ लौट आया अपने ख्वाबों के शहर, इस बार दुगने उत्साह के साथ!
मेरे घर के हर कोने से मेरी अनेकों यादें जुड़ी थीं. चलते वक्त मन को बहलाने के लिए माँ कि बात याद आ गयी. उनने चिढ़ाते हुए कहा था की जहां मै जा रहा हूँ वहा इससे भी बड़ा घर होगा. अगले ही पल मन ने कहा - घर दीवारों से नहीं उसमें रह रहे लोगो से बनता है.
मनमें भारीपन लिए पहुँच गया अपने ख्वाबों के शहर, उस सुंदर आलीशान घर के आगे मेरा अपना घर छोटा दीख पड़ता था, फिर सोचा माँ जान कर बड़ी खुश होंगी!
那未知ान नगरी में हर किसी के साथ कोई ना कोई था, आपस में हँसते-बोलते रहते और मै अकेला उन्हें तांकता रहता.

भीड़ में मेरी नजर दो दोस्तों पर पड़ी. उनका वो मासूम-सा तकरार और अगले ही लम्हें में ढेर सारा दुलार, मानो एक दुसरे के साथ है तो दुनिया से कोई सरोकार ही नहीं. एक तरफ़ उन्हें देख कर खुशी हुई और फिर मेरे सबसे ख़ास दोस्त का ख्याल कर के दुःख.
कभी लगता था यहाँ से भाग निकलूँ, किंतु मेरे ख्वाब मुझे पीछे खींच लेते थे. उस तन्हाई के आलम में ख़ुद ही को समझा लिया करता था. दिन गुजरते गए. एक दिन माँ का ख़त आया, उनके जन्मदिन पर एक दिन के लिए घर बुलाया था. फिर क्या था, एक पंछी कि तरह उड़ चला अपने आशियने में. मेरे शहर कि गलियों कि वो महक, घर में घुसते ही माँ कि प्यारी-सी मुस्कान, पिताजी का दुलार और बहन का शरारत भरा झगड़ा - 'भैया, तुम खाली हाथ तो नहीं आ गए ना'! ऐसा लगा ख़ुद को फिर से पा लिया. जन्मदिन मनाने के बाद अपने ख़ास दोस्त से मिलने गया. खूब बातेंं कर अपना मन हलका किया.
हर्षित मन के साथ लौट आया अपने ख्वाबों के शहर, इस बार दुगने उत्साह के साथ!
मोह पाश से इंसान कभी नहीं छूट सकता, मगर चलते रहने का नाम ही ज़िंदगी है ना!